राम-लक्ष्मण-परशुराम संवाद भावार्थ व्याख्या सार Class 10 Hindi A

राम-लक्ष्मण-परशुराम संवाद पाठ के बारे में

‘राम-लक्ष्मण-परशुराम संवाद’ पाठ रामचरितमानस के बाल कांड से लिया गया है, जिसकी रचना गोस्वामी तुलसीदास ने की थी। इस पाठ का संबंध राजा जनक द्वारा आयोजित सीता स्वयंवर से है। जब राम शिव धनुष को तोड़ते हैं, तब क्रोधित परशुराम उस स्थान पर पहुंचते हैं और शिव धनुष को टूटा हुआ देखकर उन्हें बहुत क्रोध आ जाता है । लक्ष्मण नटखट ओर शरारती भाव से परशुराम से संवाद करते हैं जिससे उनका क्रोध बढ़ता ही जाता है। इस समय, श्रीराम अपनी विनम्रता के साथ और विश्वामित्र के समझाने पर परशुराम के क्रोध को शांत करते हैं। इस दौरान, राम, लक्ष्मण और परशुराम के बीच में जो संवाद होता है, उसे यहाँ दोहों और चौपाईयों के रूप में प्रस्तुत किया गया है।

कवि तुलसी दास का परिचय एवं रचनाएँ

तुलसी दास का जीवन परिचय

भक्तिकाल की सगुणधारा के तहत आने वाली रामभक्ति शाखा के कवियों में सर्वश्रेष्ठ कवि और लोकनायक गोस्वामी तुलसीदास का जन्म 1532 ईस्वी में उत्तर प्रदेश के बांदा जिले के राजापुर नामक गांव में हुआ था। इनके पिता का नाम आत्माराम दुबे था और माता का नाम हुलसी था। उनका जन्म मूल नक्षत्र में हुआ होने के कारण माता-पिता ने उन्हें त्याग दिया। उन्हें बचपन में भिक्षाटन के द्वारा जीवनयापन करना पड़ा।पिता के द्वारा त्याग होने के बाद, संत बाबा नरहरिदास ने उनका पालन-पोषण किया। बाबा नरहरिदास की संगति से उनका राम-भक्ति में झुकाव हुआ।

उनका विवाह एक रूपवती ब्राह्मण कन्या रत्नावली से हुआ। कहा जाता है कि वे अपनी सुंदर पत्नी के प्रति अत्यधिक आसक्त थे।इस पर इनकी पत्नी ने इनकी बड़ी आलोचना ओर भर्त्सना की, जिससे ये प्रभु-भक्ति की ओर उन्मुख हो गए। पत्नी रत्नावली की कठोर बातों के कारण उनका रामभक्ति में और भी प्रगाढ़ हुई। उन्होंने 1574 में अयोध्या में ‘रामचरित मानस’ नामक प्रसिद्ध ग्रंथ की रचना आरंभ की। संवत् 1680 (सन् 1623 ईसवी) में, काशी में उनका निधन हो गया। उनकी मृत्यु के संबंध में यह दोहा प्रसिद्ध है:

“संवत सोलह सौ असी, असी गंग के तीर।
श्रावण शुक्ला सप्तमी तुलसी तज्यो शरीर।।”

तुलसीदास की प्रमुख रचनाएँ

तुलसीदास द्वारा रचित प्रमुख काव्य ग्रंथ हैं-
रामचरितमानस, कवितावली, दोहावली, गीतावली, कृष्णगीतावली, विनय-पत्रिका।
इसके अलावा जानकी मंगल, पार्वती मंगल, रामलला नहछू, बरवै-रामायण, वैराग्य संदीपनी तथा हनुमान बाहुक इनकी रचनाएँ हैं।
तुलसीदास का ग्रंथ ‘रामचरित मानस’ सबसे प्रसिद्ध ऐसा ग्रंथ है जिसने कवि को प्रसिद्धि के चरम शिखर पर पहुँचा दिया। इस ग्रंथ का घर-घर पाठ आज भी देखने ओर सुनने को मिलता है।

भाषा-शैली

तुलसीदास ने ब्रज और अवधी भाषा में रचनाएँ कीं हैं। मुहावरों और लोकोक्तियों के प्रयोग किया है। उन्होंने अपने समय में प्रचलित सभी काव्य शैलियों को अपनाया है। चौपाई, दोहा, सोरठा, कविता, सवैया, बरवै, छप्पय आदि अनेक छंदों का उपयोग तुलसी ने किया है। उन्होंने काव्य में अलंकारों का स्वाभाविक रूप से प्रयोग किया है और उन्हें रूपकों का सम्राट कहा जाता है।

काव्य-सौंदर्य

(क) भाव पक्ष में तुलसीदास ने संपूर्ण काव्य में राम के प्रति समर्पित भावना की प्रकटि की है। उनका भाव क्षेत्र बहुत व्यापक है। लोक मंगल की भावना उनके काव्य का सबसे प्रभावी और शक्तिशाली पक्ष है। उनके काव्य में धार्मिक, सांस्कृतिक और सामाजिक दृष्टि की व्यापकता होती है। तुलसी वे काव्य में लोक जीवन का सरल और स्वाभाविक चित्रण है, ऐसा कहीं और नहीं मिलता।

(ख) कला पक्ष में तुलसीदास अवधी और ब्रज दोनों भाषाओं के सिद्धहस्त ओर निपुड़ कवि हैं। उनके काव्य ग्रंथ प्रबंध और मुक्तक दोनों रूपों में हैं। उन्होंने चौपाई, दोहा, सोरठा, हरिगीतिका, कवित्त, पद आदि छंदों को रचना का आधार बनाया है। उनकी काव्य रचनाओं में एक ओर शांत, शृंगार, वीर, हास्य, करुण, रौद्र और वात्सल्य रसों का परिपाक होता है, वहीं दूसरी ओर अनुप्रास, यमक, उपमा, रुपक, उत्प्रेक्षा और दृष्टांत जैसे अलंकारों का प्राकृतिक प्रयोग देखने को मिलता है।

राम-लक्ष्मण-परशुराम संवाद पाठ का सार

प्रस्तुत पाठ ‘राम-लक्ष्मण-परशुराम संवाद’ तुलसीदास द्वारा रचित ‘रामचरितमानस’ महाकाव्य के बालकाण्ड से लिया गया है। इसमे सीता के स्वयंवर के समय पर राम के द्वारा धनुष भंग हो जाने पर क्रोधित हुए परशुराम और राम-लक्ष्मण के मध्य हुए संवाद का वर्णन है। जनकपुरी में हो रहे सीता-स्वयंवर में शिव धनुष के भंग, हो जाने के समाचार को सुनकर क्रोधित परशुराम स्वयंवर स्थल पर पहुँच जाते हैं। वहाँ पहुँचकर वह धनुष-भंग करने वाले को ललकारते हैं। परशुराम के क्रोध को शांत करने के उद्देश्य से राम परशुराम से कहते हैं कि शिव-धनुष तोड़ने वाला कोई आपका दास ही होगा। राम के इस वचन को सुनकर परशुराम और अधिक क्रोध में बोले, जो सेवा का कार्य करता है वह सेवक होता है और जो शत्रु के समान कार्य करे वह कैसा सेवक? जिसने भी यह कार्य किया है, स्वतः ही सामने आ जाए नहीं तो सभी राजा मारे जाएँगे। परशुराम की इन बातों को सुनकर लक्ष्मण ने उनसे व्यंग्य भरे स्वर में कहा, “बचपन में तो उन्होंने ऐसे कितने ही धनुष तोड़ डाले तब तो किसी ने इस प्रकार क्रोध नहीं किया। फिर यह धनुष तो बहुत पुराना और कमजोर था जो छूते ही टूट गया। लक्ष्मण की इन बातों ने परशुराम के क्रोध को बढ़ाने के लिए आग में घी के समान कार्य किया। वे अत्यंत क्रोध में लक्ष्मण से बोले, “बालक समझकर मैं तेरा वध नहीं कर रहा हूँ। तू मूर्ख मुझे मुनि समझ रहा है। मैं धरती से क्षत्रियों का नाश करने वाला बाल ब्रह्मचारी हूँ। अपने इस कठोर फरसे से मैंने क्षत्रियों का नाश किया तथा सहस्रबाहु की भुजाओं को काट डाला। परशुराम की बड़बोली बातों को सुनकर उन्हें अपमानित करने के स्वर में लक्ष्मण ने उनसे कहा कि आप मुझे बालक समझकर भयभीत करने का प्रयास न करें। मैं आपको ब्राह्मण समझकर हाथ नहीं उठा पा रहा हूँ। वैसे भी हमारे कुल में देवता, ईश्वर भक्त, ब्राह्मण और गाय पर वीरता नहीं दिखाई जाती है। लक्ष्मण की बातों से अपमानित और क्रोधित परशुराम ने लक्ष्मण को इंगित करते हुए विश्वामित्र से कहा कि यह बालक सूर्यवंश पर कलंक के समान और वध करने के योग्य है। परशुराम की बात के प्रत्युत्तर में विश्वामित्र ने उनसे कहा, “ऋषि – मुनि बालकों के दोषों की गणना नहीं करते हैं।” विश्वामित्र की बातों से प्रेरित होकर वह बोले कि आपके कारण मैं इस बालक को छोड़ रहा हूँ अन्यथा इसका वध कर गुरु ऋण से मुक्त हो जाता। लक्ष्मण भी कहाँ चुप रहने वालों में से थे वह बोले, “माता-पिता का ऋण आपने अच्छी तरह चुका दिया। गुरु ऋण शेष है, जिसके लिए आप चिंतित दिखाई देते हैं। इतने समय में तो उस उधार का ब्याज भी बहुत बढ़ गया होगा। आप गणना करने वालों को बुला लीजिए। मैं थैली खोलकर सारा उधार चुका दूंगा।” लक्ष्मण के ऐसे वचनों को सुनकर परशुराम के क्रोध की ज्वाला और अधिक भड़क उठी और वह लक्ष्मण के पास जाकर उसे मारने को उत्सुक हो गए। लेकिन राम ने परशुराम को अपने विनम्र ओर शीतल वचनों से शांत करते हुए कहा कि वह उनका प्रिय भाई है और उनकी रक्षा करना उनका धर्म है। राम के वचनों को सुनकर परशुराम का क्रोध शांत हो गया और वे राम की प्रशंसा करते हुए वहाँ से चले गए।


राम-लक्ष्मण-परशुराम संवाद प्रसंग सहित भावार्थ व्याख्या

चौपाई 1: नाथ संभुधनु…………… संसार (CBSE 2012)

नाथ संभुधनु भंजनिहारा। होइहि केउ एक दास तुम्हारा॥
आयेसु काह कहिअ किन मोही। सुनि रिसाइ बोले मुनि कोही॥
सेवकु सो जो करै सेवकाई। अरिकरनी करि करिअ लराई॥
सुनहु राम जेहि सिवधनु तोरा। सहसबाहु सम सो रिपु मोरा॥
सो बिलगाउ बिहाइ समाजा। न त मारे जैहहिं सब राजा॥
सुनि मुनिबचन लखन मुसुकाने। बोले परसुधरहि अवमाने॥
बहु धनुही तोरी लरिकाईं। कबहुँ न असि रिस किन्हि गोसाईँ॥
येही धनु पर ममता केहि हेतू। सुनी रिसाइ कह भृगुकुलकेतू॥

रे नृपबालक कालबस बोलत तोहि न सँभार्।
धनुही सम त्रिपुरारिधनु बिदित सकल संसार॥

शब्दार्थ :- नाथ-स्वामी। संभुधनु-शिव का धनुष। भंजनिहारा-तोड़ने वाला। आयेसु-आज्ञा। मोही-मुझे। रिसाइ-क्रोधकर। कोही-क्रोधी।
सेवकाई-सेवा। अरिकरनी-शत्रु कर्म। करि-करके । जेहि-जिसने। तोरा-तोड़ा। सम-समान। रिपु-शत्रा। मोरा-मेरा । बिलगाउ-अलग। बिहाइ-छोड़कर। जैहहिं-जाएँगे। अवमाने-अपमान करते हुए। लरिकाई-बचपन। असि-ऐसी। रिस-गुस्सा। गोसाईं-स्वामी। येहि-इस। ममता-स्नेह। केहि-किस। हेतू-कारण। भृगुकुलकेतू-भृगुवंश की पताका रूप परशुराम । नृपबालक-राज-पुत्रा। कालबस-मृत्यु के वश होकर। सँभार-सँभलकर। त्रिपुरारिधनु-शिवधनुष। बिदित-ज्ञात है। सकल-संपूर्ण।

प्रसंग:- प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी हिंदी की पाठ्य पुस्तक ‘क्षितिज’ पाठ-2 ‘राम लक्ष्मण परशुराम संवाद’ से ली गई हैं। इसके रचयिता तुलसी दास जी है। ये संवाद रामचरितमानस के बाल्यकाण्ड में संकलित है। इसमें श्री राम और परशुराम ओर लक्ष्मण के बीच हुई वार्तालाप का वर्णन है।

व्याख्या:- श्रीराम ने जब शिव धनुष को तोड़ा, तब परशुराम रोषित हो गए हैं। इसलिए श्रीराम ने उनके रोष को शांत करने के उद्देश्य से कहा, “हे नाथ! शिव धनुष को तोड़ने का साहस केवल आपका ही कोई दास कर सकता है। आपके आशीर्वाद के बिना यह संभव नहीं है। क्या आज्ञा है, मुझसे क्यों नहीं कहते?” परशुराम जी श्रीराम की बातें सुनकर कहते हैं, “सेवक वह होता है जो सेवा करता है। शत्रुता का कार्य करने वाला सेवक कैसे हो सकता है? उससे तो लड़ाई ही की जा सकती है। हे राम! जिसने भी शिवधनुष को तोड़ा है वह सहस्रबाहु के समान ही मेरा शत्रु है। अतः वह स्वयं ही इस स्वयंवर सभा से अलग हो जाए, अन्यथा यहाँ उपस्थित सभी राजा मारे जाएंगे।” इस पर लक्ष्मण मुस्कराकर उनका मजाक उड़ाते हुए कहते हैं, “बचपन में हमने ऐसी बहुत सी धनुहियाँ तोड़ीं, लेकिन तब तो आप क्रोधित नहीं हुए, फिर इस धनुष के प्रति इतनी ममता क्यों है?” इस पर परशुराम ने क्रोधित होकर कहा, “हे राजकुमार, तू काल के वशीभूत है, इसलिए ऐसी बातें कर रहा है। यह धनुष कोई साधारण धनुष नहीं है, वरन्न् शिवजी का यह धनुष विश्वविख्यात है।”

राम लक्ष्मण परशुराम संवाद भावार्थ :-

नाथ संभुधनु भंजनिहारा। होइहि केउ एक दास तुम्हारा॥
आयेसु काह कहिअ किन मोही। सुनि रिसाइ बोले मुनि कोही॥
सेवकु सो जो करै सेवकाई। अरिकरनी करि करिअ लराई॥

इन पंक्तियों में श्री राम परशुराम जी से कह रहे हैं कि – हे नाथ! शिवजी के धनुष को तोड़ने की शक्ति तो केवल आपके दास में ही हो सकती है। इसलिए वह आपका कोई दास ही होगा, जिसने इस धनुष को तोड़ा है। क्या आज्ञा है? मुझे आदेश दें। यह सुनकर परशुराम जी और क्रोधित हो जाते हैं और कहते हैं सेवक वह कहलाता है , जो सेवा का कार्य करता है। शत्रुता का काम करके तो लड़ाई ही मोल ली जाती है। । यह धनुष तोड़कर उसने शत्रुता का काम किया है और इसका परिणाम युद्ध ही है।

सुनहु राम जेहि सिवधनु तोरा। सहसबाहु सम सो रिपु मोरा॥
सो बिलगाउ बिहाइ समाजा। न त मारे जैहहिं सब राजा॥
सुनि मुनिबचन लखन मुसुकाने। बोले परसुधरहि अवमाने॥
बहु धनुही तोरी लरिकाईं। कबहुँ न असि रिस किन्हि गोसाईँ॥
येही धनु पर ममता केहि हेतू। सुनी रिसाइ कह भृगुकुलकेतू॥

इसमें परशुराम जी कहते हैं कि जिसने भी शिवजी का धनुष तोड़ा है वह मेरे साथ युद्ध करने के लिए तैयार हो जाए।

अरे राम! मेरी बात सुनो, वह व्यक्ति जो भगवान शिव जी के इस धनुष को तोड़ चुका है, उसे मैं अपना सबसे बड़ा शत्रु मानता हूँ। इसका अर्थ है कि चाहे उस व्यक्ति की हजारों बाहें क्यों न हों, वह फिर भी मेरा शत्रु है। वे राज्यसभा की ओर देखते हुए कहते हैं कि जो भी शिव धनुष तोड़ चुका है, उस व्यक्ति को यहाँ से अलग हो जाना चाहिए, वरना सभी राजाओं को मार दिया जाएगा। इन क्रोधपूर्ण वचनों को सुनकर लक्ष्मण जी मुसकुराते हैं और परशुराम जी का अपमान करते हुए कहते हैं – “हे गोसाईं (संत)! हमने तो बचपन में छोटे-छोटे धनुष तोड़े थे, लेकिन ऐसा क्रोध कभी किसी ने नहीं किया था जैसा कि आप कर रहे हैं। फिर आपको इसी धनुष पर इतनी ममता क्यों है? यह धनुष आपको इतना प्रिय क्यों है? जो इसके टूट जाने पर आप इतना क्रोधित हो उठे हैं और जिसने यह धनुष तोड़ा है, उससे युद्ध करने के लिए तैयार हो गए हैं।  

रे नृपबालक कालबस बोलत तोहि न सँभार्।
धनुही सम त्रिपुरारिधनु बिदित सकल संसार॥

इसमें परशुराम जी लक्ष्मण से पूछते हैं कि तुम्हें शिवजी के धनुष और अन्य धनुष में कई अंतर नहीं नज़र आता।

लक्ष्मण की व्यंग्य भरी बातें सुनकर परशुराम जी क्रोधित स्वर में बोले हे राजा के पुत्र, तुम काल के वश में लगते हो , अर्थात तुम में अहंकार समाया हुआ है और इसी कारणवश तुम्हें यह नहीं पता चल पा रहा है कि तुम क्या बोल रहे हो। समस्त विश्व में विख्यात भगवान शिव का यह धनुष क्या तुम्हें बचपन में तोड़े हुए धनुषों के समान ही दिखाई देता है ? 

अलंकार

  • काह कहिअ किन, करि करिअ में अनुप्रास अलंकार है।
  • सहसबाहु सम सो, बिलगाउ बिहाइ में अनुप्रास अलंकार है।

चौपाई 2: लखन कहा…………..अति घोर

लखन कहा हसि हमरे जाना। सुनहु देव सब धनुष समाना॥
का छति लाभु जून धनु तोरें। देखा राम नयन के भोरें।।
छुअत टूट रघुपतिहु न दोसू। मुनि बिनु काज करिअ कत रोसू॥
बोले चितै परसु की ओरा। रे सठ सुनेहि सुभाउ न मोरा॥
बालकु बोलि बधौं नहि तोही। केवल मुनि जड़ जानहि मोही।।
बाल ब्रह्म्चारी अति कोही। बिस्वबिदित क्षत्रियकुल द्रोही॥
भुजबल भूमि भूप बिनु कीन्ही। बिपुल बार महिदेवन्ह दीन्ही॥
सहसबाहुभुज छेदनिहारा। परसु बिलोकु महीपकुमारा॥

मातु पितहि जनि सोचबस करसि महीसकिसोर।
गर्भन्ह के अर्भक दलन परसु मोर अति घोर॥

शब्दार्थ :- हसि-हँसकर। छति-हानि। जून-जीर्ण, पुराना। तोरें-तोड़ने से। छुअत-छूते ही। दोसू-दोष। बिनु-बिना। काज-कार्य। करिअ-कर रहे हो। कत-क्यों। रोसू-गुस्सा। चितै-देखकर। ओरा-ओर, तरफ। सठ-दुष्ट। सुभाउ-स्वभाव। मोरा-मेरा। बधौं-बध कर रहा है। तोही-तेरा। जड़-मूर्ख। जानहि-जानता है। मोही-मुझे। कोही-क्रोधी। बिस्वबिदित-संसार-प्रसिद्ध। द्रोही-शत्रुता करने वाला। भुजबल-भुजाओं के बल पर। बिपुल-बहुत। महिदेवन्ह-ब्राह्मणों के लिए। भुज-भुजा। छेदनिहारा-काटने वाला। बिलोकु-देखकर। महीपवुकुमारा-राजकुमार। सोचबस-सोच के कारण। महीसकिसोर-राजकुमार। गर्भन्ह-गर्भ के । अर्भक-बच्चे।

प्रसंग:- प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी हिंदी की पाठ्य पुस्तक ‘क्षितिज’ पाठ-2 ‘राम लक्ष्मण परशुराम संवाद’ से ली गई हैं। इसके रचयिता तुलसी दास जी है। ये संवाद रामचरितमानस के बाल्यकाण्ड में संकलित है। इसमें श परशुराम ओर लक्ष्मण के बीच हुई वार्तालाप का वर्णन है। इसमें परशुराम जी की बात सुनकर लक्ष्मण जी व्यंग्य करते हैं ओर परशुराम अभिमान से अपना डर दिखाते हुए चुप कराने की चेष्टा करते हैं।

व्याख्या:- लक्ष्मण हँसते हैं ओर परशुराम को संबोधित करते हुए कहते हैं , “हे देव! हमारे ज्ञान के अनुसार सभी धनुष बराबर होते हैं। फिर इस जीर्ण, टूटे-फटे धनुष की क्या हानि है? और क्या लाभ है? श्री राम ने इसे नया समझा था, छूते ही यह धनुष टूट गया। इसमें श्रीराम का कोई दोष नहीं है। मुनिवर! आप तो बिना कारण क्रोधित हो रहे हैं।” तब परशुराम अपने फरसे की ओर देखते हुए बोले, “ओ दुष्ट लक्ष्मण! तूने मेरे स्वभाव के बारे में नहीं सुना है। मैं तुझे बालक समझकर तेरा नाश नहीं कर रहा हूँ। हे मूर्ख! तू मुझे केवल साधारण मुनि समझ रहा है। (इसलिए तू अधिक बातें कर रहा है) मैं क्षत्रिय योद्धाओं का द्रोह करने वाला, विश्व-प्रसिद्ध, अत्यंत क्रोधी, बाल-ब्रह्मचारी हूँ। मैंने अपनी भुजाओं और शक्ति से कई बार क्षत्रिय राजाओं को जीता है और पृथ्वी को ब्राह्मणों को दान कर दी है। हे राजकुमार! इस हजार बाहुओं वाले मेरे फरसे की ओर देख।” “हे राजपुत्र! अपने माता-पिता के लिए मरकर विचार का कारण न बन। यह अत्यंत भयानक फरसा गर्भ के शिशुओं को भी नष्ट करने में सक्षम है।”

लखन कहा हसि हमरे जाना। सुनहु देव सब धनुष समाना॥
का छति लाभु जून धनु तोरें। देखा राम नयन के भोरें।।
छुअत टूट रघुपतिहु न दोसू। मुनि बिनु काज करिअ कत रोसू॥

राम लक्ष्मण परशुराम संवाद भावार्थ :-  लक्ष्मण ने परशुराम की बात सुनने के बाद, मुस्कान लिए हुए उनसे व्यंग्य पूर्वक कहा कि हमें सभी धनुष एक जैसे दिखाई देते हैं, किसी में कोई अंतर नजर नहीं आता। फिर इस पुराने धनुष के टूट जाने पर आप इतना क्रोधित क्यों हो गए हैं? जब लक्ष्मण परशुराम जी के साथ यह बात कर रहे थे, तब श्री राम ने तिरछी आँखों से चुप रहने का संकेत दिया। फिर लक्ष्मण यह कहते हैं, इस धनुष के टूटने में श्री राम का कोई दोष नहीं है, क्योंकि इस धनुष को श्री राम ने सिर्फ छुआ था और यह टूट गया। आप बेकार में क्रोधित हो रहे हैं।

बोले चितै परसु की ओरा। रे सठ सुनेहि सुभाउ न मोरा॥
बालकु बोलि बधौं नहि तोही। केवल मुनि जड़ जानहि मोही।।
बाल ब्रह्म्चारी अति कोही। बिस्वबिदित क्षत्रियकुल द्रोही॥
भुजबल भूमि भूप बिनु कीन्ही। बिपुल बार महिदेवन्ह दीन्ही॥
सहसबाहुभुज छेदनिहारा। परसु बिलोकु महीपकुमारा॥

इन पंक्तियों में परशुराम जी लक्ष्मण जी की हंसी – ठिठोली पर अत्यधिक क्रोधित हो कर अपनी शक्ति का भय दिखते हैं ।

राम लक्ष्मण परशुराम संवाद भावार्थ :- परशुराम जी, जो लक्ष्मण जी की व्यंग्यपूर्ण बातें सुनकर क्रोधित हो गए, अपने फरसे की ओर देखते हुए उनसे बोले, “ओ दुष्ट! क्या तुमने मेरे स्वभाव के विषय में नहीं सुना है? मैं तुम्हें केवल बालक समझकर तुम्हारा वध नहीं कर रहा हूँ। हे मूर्ख! क्या तुम मुझे केवल एक मुनि समझते हो? मैं बाल ब्रह्मचारी हूँ और अत्यंत क्रोधी स्वभाव वाला व्यक्ति हूँ। मैं पूरे विश्व में क्षत्रियों के घोर शत्रु के रूप में प्रसिद्ध हूँ। मैंने अपनी इन हीं भुजाओं की शक्ति से पृथ्वी को कई बार राजाओं से छीनकर उसे ब्राह्मणों को दान में दे दिया था। हे राजकुमार! मेरे इस फरसे को देखो, जिससे मैंने सहस्रबाहु अर्थात हजारों लोगों की भुजाओं को काट डाला था।”

मातु पितहि जनि सोचबस करसि महीसकिसोर।
गर्भन्ह के अर्भक दलन परसु मोर अति घोर॥

राम लक्ष्मण परशुराम संवाद भावार्थ :- अहो, राजकुमार बालक ! तुम मुझसे टकरा कर अपने माता-पिता को परेशानी में मत डालो, अर्थात अपनी मृत्यु को आगे न बढ़ाओ। मेरे हाथ में वही फारसा है, जिसकी गर्जना सुनकर गर्भ में पल रहे शिशु का भी नाश हो जाता है। मेरे हाथ में वही फरसा है, जिसकी गर्जना सुनकर गर्भ में पल रहे बच्चे का भी नाश हो जाता है।

अलंकार

  • काज करिअ कत, हसि हमरे में अनुप्रास अलंकार है।
  • सठ सुनेहि सुभाउ, भुजबल भूमि भूप, में अनुप्रास अलंकार है।

चौपाई 3: बिहसि लखनु बोले……………. गिरा गंभीर। (CBSE 2012, 2015)

बिहसि लखनु बोले मृदु बानी। अहो मुनीसु महाभट मानी।।
पुनि पुनि मोहि देखाव कुठारु। चहत उड़ावन फूँकि पहारू॥
इहाँ कुम्हड़बतिया कोऊ नाहीं। जे तरजनी देखि मरि जाहीं॥
देखि कुठारु सरासन बाना। मैं कछु कहा सहित अभिमाना॥
भृगुसुत समुझि जनेउ बिलोकी। जो कछु कहहु सहौं रिस रोकी॥
सुर महिसुर हरिजन अरु गाई। हमरे कुल इन्ह पर न सुराई॥
बधें पापु अपकीरति हारें। मारतहू पा परिअ तुम्हारें।।
कोटि कुलिस सम बचनु तुम्हारा। ब्यर्थ धरहु धनु बान कुठारा॥

जो बिलोकि अनुचित कहेउँ छमहु महामुनि धीर।
सुनि सरोष भृगुबंसमनि बोले गिरा गंभीर।

शब्दार्थ :-

बिहसि-हँसकर। मृदु-कोमल। बानी-वाणी। महाभट-महायोद्धा। पुनि-पुनि-बार-बार। देखाव-दिखा रहे हो। कुठारु-कुल्हाड़ी। चहत-चाहते हो। उड़ावन-उड़ाना। फूँकि-फूँक से। पहारू-पहाड़। कुम्हड़बतिया-छोटा-सा फल अर्थात् निर्बल। तरजनी-अँगूठे के पास की प्रथम उँगली। सरासन-धनुष। बाना-बाण। भृगुसुत-ऋषि भृगु के पुत्र परशुराम। समुझि-समझकर। बिलोकी-देखकर। सहौं-सहन कर रहा हूँ। रिस-गुस्सा। रोकी-रोककर। सुर-देवता। महिसुर-ब्राह्मण। गाई-गाय। सुराई-वीरता। बधें-मारने से। अपकीरति-अपयश, बुराई। हारें-हारने से। मारतहू-मारने से। पा-पैर। परिअ-पड़ते है। कोटि-करोड़ों । कुलिस-कठोर। धरहु-धारण किए हुए। छमहु-क्षमा करें। धीर-धैर्यवान्। सरोष-क्रोध-सहित। भृगुवंशमनि-भृगुवंश के मणि परशुराम। गिरा-वाणी।

प्रसंग:- प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी हिंदी की पाठ्य पुस्तक ‘क्षितिज’ पाठ-2 ‘राम लक्ष्मण परशुराम संवाद’ से ली गई हैं। इसके रचयिता तुलसी दास जी है। ये संवाद रामचरितमानस के बाल्यकाण्ड में संकलित है। इसमें श परशुराम ओर लक्ष्मण के बीच हुई वार्तालाप का वर्णन है। लक्ष्मण जी परशुराम को पलट कर उत्तर देते हुए उनके फरसे का परिहास करते हैं।

व्याख्या:- लक्ष्मण हँसकर कोमल वाणी में उत्तर देते हैं कि आप तो महामुनि महान योद्धा माने जाते हैं। आप मुझे बार-बार फरसा दिखा रहे हैं। क्या आप फूँक मारकर पहाड़ उड़ा देना चाहते हैं। यहाँ कोई कुम्हड़बतिया के समान नाजुक नहीं है जो तर्जनी ही मर जाये। अर्थात् हम डरने वाले नहीं हैं। हे मुनिवर! आपके पास फरसा और धनुषबाण देखकर ही अभिमान सहित आपसे कुछ कहा था। मैं आपको भृगुवंशी समझकर और यज्ञोपवीत देखकर आपकी व्यर्थ की बातों को सह रहा था। देवता, ब्राह्मण, भक्त और गायइ, इन चारों पर हमारे कुल में वीरता नहीं दिखाई जाती क्योंकि इन्हें मारने पर पाप लगता है और इनसे हारने पर अपयश की प्राप्ति होती है। इसलिए अगर आप मुझे मारेंगे तो भी मैं आपके पैरों में ही पडूँगा। आपकी एक-एक बात ही करोड़ों वज्रों के समान कठोर है। आपने यह तीर-धनुष व्यर्थ ही धारण किया हुआ है। यदि आपको देखकर मैंने कुछ अनुचित कहा हो तो हे धीर मुनि! मुझे माफ कर देना। लक्ष्मण के ऐसे व्यंग्यपूर्ण वचन सुनकर भृगुवंशी परशुराम क्रोध सहित गंभीर वाणी में बोले।

बिहसि लखनु बोले मृदु बानी। अहो मुनीसु महाभट मानी।।
पुनि पुनि मोहि देखाव कुठारु। चहत उड़ावन फूँकि पहारू॥
इहाँ कुम्हड़बतिया कोऊ नाहीं। जे तरजनी देखि मरि जाहीं॥

राम लक्ष्मण परशुराम संवाद भावार्थ :- लक्ष्मण हँसकर कोमल वाणी से बोले – अहो, मुनीश्वर तो अपने को बड़ा भारी योद्धा समझते हैं। बार-बार मुझे कुल्हाड़ी दिखाते हैं। फूँक से पहाड़ उड़ाना चाहते हैं। परन्तु मैं कोई कुम्हड़बतिया यानि छुइमुई का पेड़ नहीं, जिसे आप अपनी तर्जनी ऊँगली दिखाकर मुरझा सकते हैं, अरथार्थ मई डरने वाला नहीं।

देखि कुठारु सरासन बाना। मैं कछु कहा सहित अभिमाना॥
भृगुसुत समुझि जनेउ बिलोकी। जो कछु कहहु सहौं रिस रोकी॥
सुर महिसुर हरिजन अरु गाई। हमरे कुल इन्ह पर न सुराई॥
बधें पापु अपकीरति हारें। मारतहू पा परिअ तुम्हारें।।
कोटि कुलिस सम बचनु तुम्हारा। ब्यर्थ धरहु धनु बान कुठारा॥

राम लक्ष्मण परशुराम संवाद भावार्थ :-  इन पंक्तियों में लक्ष्मण कहते हैं, मैंने आपको अभिमानपूर्वक इसलिए कुछ कह दिया था क्योंकि मैंने आपके हाथ में कुल्हाड़ा और कंधे पर टँगे तीर-धनुष देखकर आपको एक वीर योद्धा समझा था। आपको ऋषि भृगु का पुत्र मानकर और कंधेपर जनेऊ देखकर मैंने आपके द्वारा किए गए सभी अपमानों को सहन किया और क्रोध की अग्नि को नहीं जलने दिया।

वैसे भी हमारे कुल की यह परंपरा है कि हम अपनी वीरता को देवता, ब्राह्मण, भक्त और गाय के ऊपर आजमाने की नहीं सोचते। आप तो ब्राह्मण हैं और अगर मैं आपका वध करता हूँ, तो पाप मुझे ही लगेगा। अगर आप मेरा वध कर देते हैं, तो मुझे आपके चरणों में झुकना पड़ेगा। यही हमारे कुल की मर्यादा है। इसके बाद लक्ष्मण कहता है कि आपके वचन किसी व्रज की भाँति कठोर हैं, तो फिर आपको इस कुल्हाड़े और धनुष की क्या ज़रूरत है।

जो बिलोकि अनुचित कहेउँ छमहु महामुनि धीर।
सुनि सरोष भृगुबंसमनि बोले गिरा गंभीर।

राम लक्ष्मण परशुराम संवाद भावार्थ :- इन्हें (धनुष-बाण और कुठार को) देखकर मैंने कुछ अनुचित कहा हो, तो उसे हे धीर महामुनि! क्षमा कीजिए। यह सुनकर भृगुवंशमणि परशुराम क्रोध के साथ गंभीर वाणी बोले 

अलंकार

  • मुनीसु महाभट मानी में अनुप्रास अलंकार है।
  • ‘पुनि पुनि’ में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।
  • कोटि कुलिस, धरहु धनु, बान कुठारा में अनुप्रास अलंकार है।
  • सुनि सरोष,  गिरा गंभीर  में अनुप्रास अलंकार है।

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