सूरदास: परिचय एवं साहित्य रचना Class 10 Hindi A

सूरदास का परिचय, उनकी रचना एवं व्यक्तित्व

कवि परिचय

सूरदास एक प्रसिद्ध हिंदी साहित्यकार थे और उन्होंने अपनी कविताओं के माध्यम से श्रीकृष्ण के बाल्य-जीवन का सजीव वर्णन किया था। वे “वात्सल्य सम्राट” के नाम से प्रसिद्ध थे और उनका जन्म सन् 1478 में रुनकता (रेणुका) क्षेत्र में हुआ था, जो मथुरा के निकट है।

बहुत से विद्वान उनका जन्म दिल्ली के निकट “सीही” नामक गाँव मानते हैं। सूरदास मथुरा में गऊघाट पर रहते थे और उनकी भेंट बल्लभाचार्य से हुई थी। बल्लभाचार्य ने ही उन्हें अपने संप्रदाय में दीक्षित किया था। बल्लभाचार्य उनके शिष्यों में से एक थे और सूरदास जी अष्टछाप के कवियों में सर्वश्रेष्ठ माने जाते थे।

सूरदास ने बल्लभाचार्य की आज्ञा से भागवत पर आधारित पद-रचना की और मंदिर में रहते हुए स्वयं लिखे हुए पदों का कीर्तन किया। बहुत से लोग सूरदास को जन्मांध मानते थे, परंतु कुछ विद्वान इसे जन्मांध नहीं मानते थे। उनका मत है कि बाल्य-काल की अनुभूति किए बिना इन दृश्यों का इतना सजीव चित्रण करना मुश्किल है, जितना सजीव चित्रण सूरदास ने किया है।

सूरदास ने अपने जीवनभर श्रीकृष्ण के संबंध में पदों का गायन किया और उन्होंने 105 वर्ष की लंबी उम्र जी है। कृष्णभक्ति शाखा का यह सर्वोत्कृष्ट नक्षत्र 1583 में अनंत आकाश में सदैव के लिए विलीन हो गया।

सूरदास की रचनाएँ

महाकवि सूरदास ब्रज भाषा के कवि थे। महाकवि सूरदास के प्रमुख पांच ग्रंथों के नाम निम्न हैं:

  1. सूरसागर (Soorsagar) – इस ग्रंथ में लगभग सवा लाख पद हैं, लेकिन वर्तमान में केवल सात से आठ हजार पद ही प्राप्त हैं।
  2. सूरसारावली (Soorasaravali) – यह ग्रंथ 1107 छंदों की रचना है और वृहत होली गीत के रूप में जाना जाता है।
  3. साहित्य लहरी (Sahitya Lahiri) – इस ग्रंथ में कुल 118 पद हैं। यह एक छोटी रचना है।
  4. इन ग्रंथों के साथ, सूरदास जी ने और भी अनेक रचनाएँ की हैं जैसे “नल दमयंती,” “ब्याहलो,” “नाग लीला,” “गोवर्धन लीला,” और “सूरपच्चीसी”। इनके साथ उनके कुल मिलाकर 16 ग्रंथ हैं।

ये सभी ग्रंथ सूरदास जी की भक्ति, प्रेम, और श्रीकृष्ण की लीलाओं को समर्पित हैं और उनकी साहित्यिक महत्त्वपूर्णता को प्रतिष्ठित करती हैं।

सूरदास की ‘सूरसागर’

सूरदास जी ने “सूरसागर” की रचना सबसे प्रसिद्ध है, जो सगुण भक्तिधारा के प्रमुख रचनाकारों में से एक महत्वपूर्ण है। निम्नलिखित पदों में से चार पद सूरदास जी के “सूरसागर” के भ्रमरगीत से लिए गए हैं:

  1. श्री वृषभानुवन के भ्रमर: इस पद में बताया जाता है कि श्रीकृष्ण मथुरा चले गए हैं और उन्होंने अपने भ्रमर (एक प्रकार की मधुमक्खी) के माध्यम से गोपियों को एक संदेश भेजा है। इस संदेश में उ(व ने गोपियों को निर्गुण ब्रह्म और योग साधना के बारे में बताया है, ताकि उनकी विरह की वेदना शान्त हो जाए।
  2. गोपियों की प्रतिभाओं की चर्चा: इस पद में गोपियाँ श्रीकृष्ण से बहुत प्रेम करती हैं, लेकिन वे नीरस ज्ञान मार्ग के स्थान पर प्रेम-मार्ग को पसंद करती हैं। गोपियाँ श्रीकृष्ण को प्राप्त करने के लिए प्रेम-मार्ग का अनुसरण करना चाहती हैं।
  3. गोपियों के व्यंग्य: इस पद में एक भ्रमरा (मधुमक्खी) गोपियों के पास आता है और गोपियाँ उस पर व्यंग्य करती हैं। इससे भ्रमरगीत की शुरुआत होती है। गोपियाँ इस पद में योग मार्ग पर प्रेम की श्रेष्ठता को सिद्ध करती हैं।
  4. गोपियों के प्रेम-रस का वर्णन: इस पद में गोपियाँ अपने प्रेम-रस के विविध आनंदों का वर्णन करती हैं, जो उन्हें श्रीकृष्ण के प्रति अत्यधिक प्रेम के कारण मिलता है।

ये चार पद सूरदास जी के “सूरसागर” के महत्त्वपूर्ण हिस्से हैं, जो गोपियों के प्रेम और भक्ति के विभिन्न आयामों को व्यक्त करते हैं।

सूरदास जी की भाषा शैली ओर कला पक्ष

महाकवि सूरदास जी ने अपनी रचनाओं में ब्रज भाषा का विस्तारित और समृद्ध उपयोग किया है। यह भाषा उनके भक्ति और प्रेम के भावों को सुंदरता से प्रकट करने में मदद करती है।

सूरदास जी ने विभिन्न अलंकारों का उपयोग करके उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक आदि को अपनी रचनाओं में शामिल किया है। इससे उनकी रचनाएँ और भाषा और रस के आद्यात्मिकता और सुंदरता से प्रभावित होती हैं। उनकी भाषा में भावुकता, प्रेम, और रंगीनता की प्रमुखता होती है।

सूरदास जी की भाषा शैली में गेय पद शैली महत्वपूर्ण है। इस शैली में वे भक्ति और प्रेम के गीत और पद रचते हैं जिनमें राग-रागिनियों का प्रयोग किया जाता है। उनके पद और भजनों में माधुर्य, श्रृंगार, और प्रेम के भाव प्रधान होते हैं। यह काव्य शैली सुन्दरता, मार्मिकता, और हृदयस्पर्शी भावों को प्रकट करती

सूरदास के काव्य की विशेषताएँ इस प्रकार हैं:

  1. वात्सल्य और श्रृंगार रस: सूरदास ने अपने काव्य में वात्सल्य और श्रृंगार रस को महत्वपूर्ण स्थान दिया है। उन्होंने भगवान श्री कृष्ण के बाल स्वरूप को चित्रित करके उनके आकर्षक और प्रेमपूर्ण रूप का वर्णन किया है।
  2. भक्ति और श्रृंगार का संयोग: सूरदास का काव्य भक्ति के साथ-साथ श्रृंगार रस का भी प्रयोग करता है। इसके द्वारा उन्होंने अपने काव्य में दोहरे अर्थ और भाव प्रकट किए हैं, जो अद्वितीय है।
  3. यशोदा और गोपियों का चरित्र चित्रण: सूरदास ने यशोदा और गोपियों के चरित्र को विस्तारपूर्वक चित्रित किया है। उन्होंने उनके शील गुणों, मातृभाव के प्रतीकों, और मनोहारी लीलाओं का वर्णन किया है।
  4. विनय पद और कूट पद: सूरदास ने कुछ विनय पद रचे हैं, जहां उनकी भक्ति और दासत्व भाव प्रकट होती है। वहीं, उन्होंने कुछ कूट पद भी लिखे हैं, जो विभिन्न अर्थों का उदाहरण हैं।
  5. अलंकार और संगीतमयता: सूरदास के काव्य में कोमल पदावली के साथ अलंकार और संगीतमयता का सीधा और सरल प्रयोग देखने को मिलता है। इससे उनके काव्य में सजीवता और संगीतीकरण की भावना प्रकट होती है।
  6. भ्रमरगीत: सूरदास का भ्रमरगीत वियोग और सयोग दोनों का प्रमुख उदाहरण है। इसमें सगुण और निर्गुण ब्रह्म का उल्लेख मिलता है, और गोपियों और उद्धव के संवाद के माध्यम से हास्य और वियोग की भावना प्रकट होती है।

सूरदास के काव्य में उपर्युक्त विशेषताएँ उनके काव्य को अद्वितीय और आकर्षक बनाती हैं। उन्होंने अपनी काव्य रचनाओं में भक्ति, प्रेम, आध्यात्मिकता, और रसभरे भावों को अद्वितीय रूप से व्यक्त किया है।

सूरदास जी हिन्दी साहित्य में स्थान

सूरदास जी का साहित्य हिंदी साहित्य के इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान रखता है। उनकी रचनाओं ने ब्रज भाषा को उच्चतम कला के साथ प्रदर्शित किया है और हिंदी साहित्य के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। उन्हें हिंदी साहित्य के महान भक्त और महाकवि के रूप में जाना जाता है। उनके रचनाएं भक्ति और प्रेम के आध्यात्मिक भावों को प्रकट करती हैं और हिंदी साहित्य की धार्मिक और आध्यात्मिक परंपरा में महत्वपूर्ण स्थान रखती हैं।

उनके विषय में कहा गया है, कि

सूर सूर तुलसी ससि, उड़गन केशवदास
अब के कवि अघोत सम जहँ तहँ करत प्रवास

सूरदास के साहित्य का महत्व इस बात में है कि उन्होंने भक्ति काव्य को एक नया आयाम दिया और हिंदी साहित्य में अद्वितीय स्थान बनाया। उनकी रचनाओं में सौंदर्य, भावुकता, आध्यात्मिकता और कवित्व का सम्मिश्रण होता है जो उन्हें एक महान कवि बनाता है।


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