आत्मकथ्य -जयशंकर प्रसाद क्लास 10 हिन्दी अ पाठ का सार

आत्मकथ्य Aatmakatha Summary and detailed explanation of CBSE Class 10 Hindi (Course A) Kshitij Bhag-2 Chapter 4 “आत्मकथ्य”। The meanings of difficult words are also given. यहाँ हम हिंदी कक्षा 10 अ  ” क्षितिज भाग  2 ” के पाठ – 4 ” आत्मकथ्य ”  के पाठ -परिचय, पाठ सार, पाठ व्याख्या, कठिन शब्दों के अर्थ और NCERT की पुस्तक के अनुसार प्रश्नों के उत्तर उपलब्ध करा रहे हैं।

आत्मकथ्य पाठ-परिचय

 प्रेमचंद के संपादन ( एडिटिंग ) में हंस ( पत्रिका ) में एक आत्मकथा नाम से एक विशेष भाग निकलना तय हुआ था। उसी भाग के अंतर्गत जयशंकर प्रसाद जी के मित्रों ने उनसे निवेदन किया कि वे भी हंस ( पत्रिका ) में अपनी आत्मकथा लिखें। परन्तु जयशंकर प्रसाद जी अपने मित्रों के इस अनुरोध से सहमत नहीं थे। क्योंकि कवि अपने धोखेबाज मित्रों की असलियत दुनिया के सामने ला कर , उनको शर्मिंदा नही करना चाहते थे और साथ ही साथ वे अपने निजी पलों को भी दुनिया के सामने नहीं बताना चाहते थे। कवि कि इसी असहमति के तर्क से पैदा हुई कविता है – आत्मकथ्य। यह कविता पहली बार 1932 में हंस के आत्मकथा के विशेष भाग में प्रकाशित की गई थी। छायावादी शैली में लिखी गई इस कविता में जयशंकर प्रसाद ने जीवन के यथार्थ एवं आत्मकथा लेखन के विषय में अपनी मनोभावनाएँ व्यक्त की है। छायावादी शैली की बारीकी को ध्यान में रख कर ही अपने मन के भावों को सबके सामने बताने के लिए जयशंकर प्रसाद ने ललित , सुंदर एवं नवीन शब्दों और बिंबो का प्रयोग किया है। इन्हीं शब्दों एवं बिंबो के सहारे उन्होंने बताया है कि उनके जीवन की कथा भी किसी एक सामान्य व्यक्ति के जीवन की कथा की तरह ही है। इसमें ऐसा कुछ भी नहीं है जिसे महान और दिलचस्प मानकर लोग वाह – वाह करेंगे।  कुल मिलाकर इस कविता में एक तरफ कवि द्वारा जैसा होना चाहिए , ठीक वैसा ही स्वीकार किया गया है तो दूसरी तरफ एक महान कवि की विनम्रता भी इस कविता के जरिए हमें मिलती है।

जयशंकर प्रसाद जी का जीवन-परिचय

छायावादी कवि जयशंकर प्रसाद का जन्म सन् 1889 में वाराणसी के प्रतिष्ठित वैश्य परिवार में हुआ। इस परिवार को ‘सुघनी
साहु’ के नाम से जाना जाता था। इनके पिता का नाम देवी प्रसाद था जो तंबाकू के प्रसिद्ध व्यापारी थे। प्रसाद जी ने काशी के
क्वींस कॉलेज से आठवीं कक्षा उत्तीर्ण की। इसवे$ पश्चात इन्होंने घर पर ही हिंदी, संस्कृत, फारसी, उर्दू आदि भाषाओं का अध्ययन
किया। इनके माता-पिता तथा बड़े भाई का असामयिक निधन हो गया। युवावस्था में ही पत्नी का निधन होने की चिरवेदना का
प्रभाव इनके काव्य-रचनाओं पर स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। इनकी मृत्यु सन् 1937 में हो गई।

जयशंकर प्रसाद जी की रचनाएँ

प्रसाद जी बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। इन्होंने साहित्य की अनेक विद्याओं पर अपनी लेखनी चलाई। कविता, नाटक, कहानी, उपन्यास सभी में इनकी उत्कृष्ट रचनाएँ हैं, जिनमें ‘कामायनी’ आधुनिक काव्य-जगत् की सर्वोत्कृष्ट रचना है। इनकी प्रमुख रचनाएँ इस प्रकार हैं-

  • महाकाव्य-‘कामायनी’ (आधुनिक हिन्दी की श्रेष्ठतम काव्य-कृति मानी जाने वाली रचना है।) इस रचना पर इन्हें मंगला प्रसाद पारितोषिक दिया गया।
  • खंड काव्य-आँसू, महाराणा का महत्त्व, प्रेम-पथिक।
  • नाटक-अजातशत्राु, चंद्रगुप्त, स्वं$दगुप्त और ध्रुवस्वामिनी।
  • उपन्यास-कंकाल, तितली और इरावती।
  • कहानी-संग्रह:आकाशदीप, आँधी, और इंद्रजाल।

काव्य-सौंदर्य

प्रसाद जी की सभी रचनाएँ परिमार्जित हैं। इन्होंने अपने काव्य में नारी को पराकाष्ठा तक पहुँचाया। पुरुषत्व के मोह में नारी-सत्ता को नगण्य मानने वाले पुरुष को इन्होंने समरसता लाने की सलाह दी हैµ
”तुम भूल गए पुरुषत्व मोह में, कुछ सत्ता है नारी की“ इस तरह इनके काव्य की सुंदरता, नारी के सौंदर्य से आकृष्ट नहीं हुई
है। इनके काव्य में उपमा, अनुप्रास, रूपक, विरोधाभास अलंकारों का जिस तरह प्रयोग हुआ है, वह सर्वथा नवीन है। इस तरह
प्रसाद का साहित्य जीवन की कोमलता, माधुर्य, शक्ति और ओज का साहित्य माना जाता है। छायावाद की अतिशय काल्पनिकता,
सौंदर्य का सूक्ष्म चित्राण, प्रकृति-प्रेम, देश-प्रेम, कविता में दर्शनीय हैं।

भाषा-शैली

प्रसाद की रचनाओं में इनकी भाषा कहीं सहज, सरल, सुबोध है तो कहीं अति दुरूह है। परिमार्जित संस्कृतनिष्ठ शब्दों का प्रयोग है। खड़ी-बोली का शुद्ध-साहित्यिक स्वरूप है। छोटे-छोटे वाक्यों में गांभीर्य के दर्शन होते हैं। देश-प्रेम की रचनाओं में ओज का प्रवाह है, तो शृंगार रस वे$ वर्णन में माधुर्य का प्रवाह दिखाई देता है।

पाठ का सार

छायावादी कवि जयशंकर प्रसाद जी के अनुसार यह संसार नश्वर है। वृक्ष की घनी पत्तियाँ मुरझाकर गिर जाती हैं। इस संसार में
अनेक महापुरुष हैं, जिनके इतिहास के सम्मुख तो अपनी जीवन-कहानी हास्यास्पद है। फिर भी अपने हास्यास्पद जीवन-वृत्त को लिखने का कौन साहस करेगा, जिससे किसी को किसी प्रकार से सुख मिलने की संभावना नहीं है। मेरा जीवनरूपी घड़ा रिक्त है। इससे किसी को कुछ प्राप्त होने वाला नहीं है। मेरे जीवन में आया सुख स्वप्न के समान क्षणिक था। जीवन की गाथा ऐसी नहीं है कि सब रस लेकर सुनें। मेरे जीवन की व्यथाएँ अभी सुप्तावस्था में हैं। उन्हें जगाने का अभी समय नहीं है।

आत्मकथ्य पाठ की व्याख्या

काव्यांश 1

मधुप गुन – गुनाकर कह जाता कौन कहानी यह अपनी ,
मुरझाकर गिर रहीं पत्तियाँ देखो कितनी आज घनी ।
इस गंभीर अनंत – नीलिमा में असंख्य जीवन – इतिहास
यह लो , करते ही रहते हैं अपना व्यंग्य – मलिन उपहास
तब भी कहते हो – कह डालूँ दुर्बलता अपनी बीती ।
तुम सुनकर सुख पाओगे , देखोगे – यह गागर रीती ।
किंतु कहीं ऐसा न हो कि तुम ही खाली करने वाले –
अपने को समझो , मेरा रस ले अपनी भरने वाले ।

शब्दार्थ:- मधुप – भौंरा। घनी – अधिक। अनंत – विशाल। नीलिमा – नीला आकाश। असंख्य – अनगिनत। व्यंग्य – मज़ाक। मलिन – गंदा। उपहास – मज़ाक। दुर्बलता – कमज़ोरी। बीती – गुजरी हुई स्थति या बात। गागर रीती – खाली घड़ा ( ऐसा मन जिसमें भाव नहीं है )

भावार्थ:कवि जयशंकर प्रसाद पहले तो अपनी आत्मकथा लिखने को तैयार नहीं थे और तर्क दे रहे थे कि इस हिंदी साहित्य में न जाने कितने महान् पुरुषों अर्थात लेखकों के जीवन का इतिहास उनकी आत्मकथा के रूप में मौजूद हैं। लोग इन महान लेखकों की आत्मकथा को पढ़कर उनकी कमियों का मजाक बनाते हैं। इस कड़वे सत्य को स्वीकार करते हुए कि प्रत्येक व्यक्ति एक दूसरे की दुर्बलताओं और कमजोरियों का मजाक बनाने में लगा है। फिर भी कवि अंततः अपनी आत्मकथा को लिखने के लिए तैयार तो हो जाते हैं किन्तु चेतावनी भी देते हैं कि वे कुछ ऐसा भी लिख सकते हैं जिसे पढ़कर कही कोई ऐसा न समझे कि उनके जीवन में जो सुख , खुशियों और आनंद रूपी रस थे , वो उन सभी ने ही खाली किये हैं और कवि का जीवन दुखों से भर दिया है। असल में यह भी कवि का एक तर्क ही है जिसको दे कर वे अपनी आत्मकथा को लिखने से बचना चाहते हैं।

व्याख्या:- कवि के अपने जीवन उपवन में, मन रूपी भ्रमर गुंजार करता हुआ जीवन की कहानी कह जाता है। कवि इतना तो जानता है कि उसके जीवन रूपी उपवन की कितनी घनी पत्तियाँ मुरझाकर गिर गईं अर्थात् उसके उपवन को हरा-भरा करने वाली, खुशियाँ प्रदान करने वाली उसके जीवन का साथ छोड़कर चली गई। इस अनंत विस्तृत आकाश में कितने ही महापुरुषों ने अपने जीवन-वृत्त लिखे हैं। उनसे यही प्रतीत होता है कि उन्होंने अपना जीवन-वृत्त लिखकर अपना उपहास किया है या उन महान पुरुषों के जीवन-वृत्त के सम्मुख अभावों से भरे अपने जीवन-वृत्त को लिख अपना उपहास कराने के अतिरिक्त और कुछ नहीं किया है। यह जानते हुए मित्रों द्वारा जीवन वृत्त लिखने के लिए कहे जाने पर कवि उनसे कहता है-फिर भी मुझसे अपेक्षा करते हो कि मैं अपनी दुर्बलताएँ, बुराइयाँ, निराशा-भरी जीवन कथा लिखूँ। जब मेरे जीवन की भावनाओं से रहित रिक्त मन के बारे में जानोगे, सुनोगे, देखागे तो निराशा और दुख के अतिरिक्त कोई सुख प्राप्त नहीं होगा।

कवि आगे कहते हैं कि अगर मैंने अपनी आत्मकथा में कुछ ऐसा लिख दिया जिसे पढ़कर तुम कही ऐसा न समझो कि मेरे जीवन रूपी गागर (घड़े)  में जो सुख , खुशियों और आनंद रूपी रस थे । वो सभी तुमने ही खाली किये हैं। और उन सभी रसों को मेरे जीवन रूपी गागर  (घड़े) से लेकर तुमने अपने जीवन रूपी गागर  (घड़े) में भर लिया हों। और मेरा जीवन दुखों से भर दिया हो।

काव्यांश में ‘मधुप’ मन का प्रतीक है। कवि का मन भी भौंरे के समान ही यहाँ-वहाँ उड़कर पहुँच जाता है। यह मन रूपी मधुप कवि के जीवन की भूली-बिसरी घटनाओं की याद दिला रहा है, जिससे लगता है कि वह कहानी सुना रहा है।

”मुरझाकर गिर रही पत्तियाँ देखो कितनी आज घनी“ से स्पष्ट है कि कवि का जीवन निराशाओं से भरा रहा है। उसके
जीवन की खुशियाँ एक-एक कर उसी प्रकार पलायन करती जा रही हैं, जिस प्रकार प्रकृति की शोभा रूपी पत्तियाँ एक-एककर मुरझाकर वृक्ष से अलग होती जाती हैं।

कवि के अनुसार दूसरे लोग व्यक्ति की कमजोरियाँ का मजाक बना देते है।ऐसा उपहास कर उन्हे जैसे आत्मसुख प्राप्त होता लगता है । लोग अपनी दुर्बल भावनाओं को छिपाने के लिए दूसरे की दुर्बल भावनाओं को लोगों के सामने प्रकट कराना चाहते हैं। इस प्रकार लोगों को आत्म-संतोष मिलेगा कि हमसे भी अधिक हास्यास्पद कोई है।

काव्यांश 2

यह विडंबना ! अरी सरलते तेरी हँसी उड़ाऊँ मैं ।
भूलें अपनी या प्रवंचना औरों की दिखलाऊँ मैं ।
उज्ज्वल गाथा कैसे गाऊँ , मधुर चाँदनी रातों की ।
अरे खिल – खिला कर हँसते होने वाली उन बातों की ।
मिला कहाँ वह सुख जिसका मैं स्वप्न देखकर जाग गया ।
आलिंगन में आते – आते मुसक्या कर जो भाग गया ।

शब्दार्थ
विडंबना
 – दुर्भाग्य , कष्टकर स्थिति , निंदा करना
सरलते – सरल मन वाले
प्रवंचना – छल , धोखा , कपट , झूठ , धूर्तता
उज्ज्वल गाथा – सुखभरी कहानी
आलिंगन – बाँहों में भरना
मुसक्या – मुसकुराकर

भावार्थ:– कवि यहां पर कहते हैं कि जिस व्यक्ति का स्वभाव जितना ज्यादा सरल होता है उसको लोग उतना ही ज्यादा धोखा देते हैं। कवि अपने उन प्रपंची मित्रों की असलियत दुनिया के सामने ला कर , उनको शर्मिंदा नही करना चाहते। साथ ही साथ वे अपने निजी पलों को भी दुनिया के सामने नहीं बताना चाहते। अपनी पत्नी की मृत्यु के बाद कवि अपने जीवन को दुःखमयी समझता है।

व्याख्या:कवि कहते हैं कि यह तो बड़े दुर्भाग्य की बात है कि मेरे मित्र मुझे आत्मकथा लिखने को कह रहे हैं क्योंकि सरल मन वाले की मैं हँसी कैसे उड़ाऊँ। मैं तो अभी तक स्वयं दूसरों के स्वभाव को समझ नहीं पाया हूँ । मेरे सरल स्वभाव के कारण जीवन में मुझसे जो गलतियां हुई। कुछ लोगों ने जो मुझे धोखे दिए या मेरे साथ जो छल – प्रपंच किया हैं। उन सभी के बारे में लिखकर मैं अपना और उनका मजाक नहीं बनाना चाहता हूँ । कहने का तात्पर्य यह है कि कवि अपने प्रपंची मित्रों की असलियत दुनिया के सामने ला कर , उनको शर्मिंदा नही करना चाहते हैं। इसीलिए कवि अपनी आत्मकथा नहीं लिखना चाहते हैं।

कवि आगे कहते हैं कि मुझे जीवन में वह सुख कहाँ मिला ,जिसका मैं स्वप्न देख रहा था। उस स्वप्न को देखते – देखते अचानक मेरी आंख खुल गई। मैं जिस सुख की कल्पना कर रहा था। वह सुख मेरी बाहों में आते-आते , अचानक मुझे धोखा देकर भाग गया। अर्थात कवि ने अपनी पत्नी के साथ सुखपूर्वक जीवन जीने की जो कल्पना की थी , वह उनकी मृत्यु के साथ ही खत्म हो गयी। और उनका सारा जीवन दुखों से भर गया। अपनी पत्नी के साथ बिताये मधुर पलों की स्मृतियाँ ही अब कवि के जीवन जीने का एकमात्र सहारा व मार्गदर्शक हैं। इसीलिए वो अपनी पत्नी के साथ बिताए हुए उन मधुर पलों को अपनी “उज्ज्वल गाथा ” के रूप में देखते हैं और उन्हें किसी के साथ बांटना नहीं चाहते हैं।

काव्यांश 3

जिसके अरुण – कपोलों की मतवाली सुंदर छाया में ।
अनुरागिनी उषा लेती थी निज सुहाग मधुमाया में ।
उसकी स्मृति पाथेय बनी है थके पथिक की पंथा की ।
सीवन को उधेड़ कर देखोगे क्यों मेरी कंथा की ?
छोटे से जीवन की कैसे बड़ी कथाएँ आज कहूँ ?
क्या यह अच्छा नहीं कि औरों की सुनता मैं मौन रहूँ ?
सुनकर क्या तुम भला करोगे मेरी भोली आत्म – कथा ?
अभी समय भी नहीं , थकी सोई है मेरी मौन व्यथा । 

शब्दार्थ
अरुण – कपोलों – लाल गाल
मतवाली – मस्त कर देने वाली
अनुरागिनी – प्रेमभरी
उषा – सुबह
निज – अपना
सुहाग – सुहागिन होने की अवस्था , सधवा-अवस्था , सौभाग्य
मधुमाया – प्रेम से भरी हुई
स्मृति – यादें
पाथेय – सहारा
पथिक – यात्री
पंथा – रास्ता
सीवन – सिलाई
उधेड़ – खोलन , टांके तोड़ना , परत उतारना या उखाड़ना
कंथा – गुदड़ी / अंतर्मन ( जीवन की कहानी या मन के भाव )
मौन – चुप
व्यथा – दुःख

भावार्थ:उपरोक्त पंक्तियों में कवि अपनी पत्नी की सुंदरता का बखान कर रहे हैं। अपनी पत्नी की सुंदरता की तुलना कवि ने उदित होती सुबह से की है। कवि यहाँ तर्क दे रहे हैं कि अभी उनकी आत्मकथा लिखने का सही समय नहीं आया है क्योंकि उन्होंने अभी तक कोई बड़ी उपलब्धि हासिल नहीं की है और न ही वे अभी अपने दुखों को कुरेदना चाहते हैं।

व्याख्या:– यहाँ कवि अपने प्रिय (प्रेयसी) का चित्राण कर रहा है। उसके सौंदर्य का वर्णन करता है कि जिसके अरुणिम, रक्तिम गालों
के समीप रहते हुए उसे ऐसा प्रतीत होता था कि अनुराग बिखेरती हुई उषा हो। उसकी स्मृतियाँ कचोटती हैं और थके हुए पथिक
के लिए संबल (सहारा) रूप पाथेय बनी हुई हैं। आत्मकथा के लिए प्रेरित करने वालों से पूछता है कि मेरे जीवन की गुदड़ी में
सीवन को उधेड़कर अर्थात् विस्मृत पीड़ा को कुरेदने पर दर्द के अतिरिक्त जीवन में विशेष कुछ नहीं दिखाई देगा।

कवि कहता है कि अपने सामान्य जीवन की बड़ी-बड़ी गाथा कैसे कहूँ, कैसे लिखूँ। इससे तो यही उचित है कि अपनी गाथा को न कहकर मौन रहकर दूसरों की गाथाएँ सुनूँ। आत्मकथा के लिए प्रेरित करने वाले आत्मीय जनों से कहते हैं कि मेरी सरल, भोली, साधारण कथा को सुनकर या जानकर कुछ प्रेरणा नहीं मिलने वाली है। अतः मेरी आत्मकथा को सुनकर क्या करोगे? मेरी पीड़ा किसी प्रकार शांत है उसके बारे में लिखकर अपनी सुप्त पीड़ा को जगाना उचित भी प्रतीत नहीं हो रहा है। अतः आत्मकथा लिखने का उचित समय नहीं है और न कोई औचित्य है।

कवि नहीं चाहते कि कोई भी उनके अंतर्मन में झाँक कर देखे क्योंकि वहाँ तो कवि ने सिर्फ अपनी मधुर पुरानी यादों को संजो कर रखा है। कवि के अनुसार उनके जीवन में सुख के ऐसे पल कभी नहीं आए , जिनसे कोई प्रेरित हो सको । इसलिए वे अपने जीवन की कहानी को खोलकर , उधेड़कर नहीं दिखाना चाहते। इसीलिए कवि कहते हैं कि उन दुःख भरे क्षणों को , जिन्हें वो भूले चुके हैं , उन्हें फिर से याद करने के लिए उनसे कोई मत कहो। क्योंकि उनको याद करने से उनके मन में फिर से हलचल होने लगेगी और वो फिर से दुखी हो जाएंगे। इसीलिए कवि कहते हैं कि उन्हें आत्मकथा लिखने के लिए मत कहो।

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