सूरदास – पद (Surdas Pad) Class 10 Hindi A Notes & Summary

पद – सूरदास क्लास 10 हिन्दी A: यहाँ सीबीएसई कक्षा दस की हिन्दी पाठ्यपुस्तक ‘क्षितिज’ के काव्य खंड के पहले पाठ ‘पद-सूरदास’ के शॉर्ट नोट्स दिए गए हैं। पद के अर्थ की भी संक्षेप व्याख्या की गई है।

सूरदास – पद पाठ का सार (Summary)

सूरदास के काव्य ‘सूरसागर’ में संकलित ‘भ्रमरगीत’ में गोपियों की प्रेम-वियोग पीड़ा को चित्रित किया गया है। उद्धव, जो प्रेम के संदेश के स्थान पर श्री श्रीकृष्ण के योग-संदेश लाने के लिए आए थे, उसकी ओर गोपियों ने व्यंग्य-बाण छोड़ दिए हैं। इन व्यंग्य-बाणों में गोपियों की उत्कट आक्रोशित भावना है, साथ ही श्रीकृष्ण के प्रति अनन्य प्रेम भी प्रकट हो रहा है। इस तरह ये पद श्रीकृष्ण के प्रति अनन्य प्रेम और प्रेम-वियोग का वर्णन करते हैं।

पहले पद में दिखाया गया है कि यदि उद्धव प्रेम के बंधन में बँधे होते तो वह निश्चित रूप से प्रेम-वियोग की पीड़ा को समझ सकता। उद्धव कितने भाग्यशाली हैं कि वह श्रीकृष्ण के पास रहते हुए भी प्रेम-बंधन में नहीं बँध सके। वे कमल-पत्र और तेल से युक्त घड़े की तरह हैं, जिस पर पानी जमा ही नहीं होता। उन्होंने प्रेम-नदी में अपना पैर भी नहीं डुबोया। गोपियाँ ही एक ऐसी भोली और कमजोर हैं, जो नहीं जानती कि क्यों प्रेम के बंधन में ऐसे ही बँधी चली जाती हैं, जैसे चींटियाँ गुड़ से चिपटी चली जाती हैं।

दूसरे पद में गोपियों ने श्रीकृष्ण के प्रति अपने प्रेम की गहराई को व्यक्त किया है। गोपियाँ ऐसे ही मन में दुःख और आकांक्षाएँ रखती हैं। गोपियाँ कहती हैं कि मन की इच्छाएँ मन में ही बनी रह गईं। हम श्रीकृष्ण के आने की प्रतीक्षा में दुख को सह रहे थे। अब उनके द्वारा भेजे गए योग-साधना के संदेश ने हमारे दुःख को और बढ़ा दिया है। इस अवस्था में हमें कैसे संतुलन रखना चाहिए?

तीसरे पद में गोपियों ने योग-साधना के संदेश को बहुत कड़वा और तीखा माना है, और श्रीकृष्ण के प्रति अपने निष्ठापूर्ण प्रेम में दृढ़ विश्वास प्रकट किया है। गोपियाँ हारिल के लकड़ी की तरह श्रीकृष्ण को छोड़ने में असमर्थ होने का दावा करती हैं, वह कहती हैं कि श्रीकृष्ण के बिना जीना संभव नहीं है। योग-साधना का यह संदेश तेज खट्टा जैसा प्रतीत होता है। वह एक ऐसी बीमारी है, जिसे हमने कभी नहीं देखा, न सुना, न ही अनुभव किया है। गोपियों के मुताबिक योग के विचार सिर्फ उन्हीं के लिए उचित हो सकते हैं, जिनका मन चाकरी के समान चंचल होता है।

चौथे पद में गोपियाँ बोलती हैं कि श्रीकृष्ण पहले से ही चतुर और योग्य थे। उसके साथ इस विषय में उद्धव की शिक्षा लेने से वह और भी चतुर और बुद्धिमान हो गए हैं। गोपियाँ फिर सोचती हुई राजनीति को याद दिलाती हैं और कहती हैं कि पहले लोग राजनीति में रहकर अपने प्रजा का हित करते थे, लेकिन अब तो वे स्वयं ही अन्याय करने लगे हैं। राजनीति के अनुसार प्रजा को सताना नहीं चाहिए।

सूरदास – पद के भावार्थ

सूरदास – पद यहाँ सूरसागर के भ्रमरगीत से चार पद लिए गए हैं। सूरदास जी ने प्रस्तुत पदों में कृष्ण और गोपियों के प्रेम का मानवीय रूप में वर्णन किया है। उद्धव के योग साधना संदेश पर गोपियों की प्रतिक्रिया को तथा उनके मन के भावों को बहुत ही सरल ढंग से प्रस्तुत किया है। 

पहले पद का अर्थ 

ऊधौ, तुम हौ अति बड़भागी।
अपरस रहत सनेह तगा तैं, नाहिन मन अनुरागी।
पुरइनि पात रहत जल भीतर, ता रस देह न दागी।
ज्यौं जल माहँ तेल की गागरि, द न ताकौं लागी।
प्रीति-नदी मैं पाउँ न बोस्यौ, दृष्टि न रूप परागी।
सूरदास’ अबला हम भोरी, गुर चाँटी ज्यौं पागी।।​

इन पंक्तियों में गोपियाँ उद्धव से कहती हैं कि तुम भाग्यशाली हो जो श्रीकृष्ण के प्रेम में नहीं बँधे। तुम उस कमल के पत्ते तथा पानी में पड़ी तेल की बूँद हो जो पानी में रहकर भी खुद को उससे अलग रखती है। गोपियाँ कहती हैं कि उद्धव ने प्रेम रूपी नदी के पास होकर भी उसमें कभी पांव नहीं रखा जबकि गोपियाँ तो कृष्ण के प्रेम में इस तरह से लिपट गईं हैं जैसे गुड़ में चींटियाँ लिपट जाती हैं। 

दूसरे पद का अर्थ 

मन की मन ही माँझ रही।
कहिए जाइ कौन पै ऊधौ, नाहीं परत कही।
अवधि अधार आस आवन की, तन मन बिथा सही।
अब इन जोग सँदेसनि सुनि-सुनि, बिरहिनि बिरह दही।
चाहति हुतीं गुहारि जितहिं तैं, उत तैं धार बही।
‘सूरदास’ अब धीर धरहिं क्यौं, मरजादा न लही।।

गोपियों कहती हैं हम कृष्ण से बहुत कुछ कहना चाह रही थीं, पर उन बातों को किसी और को कहकर संदेश नहीं भेज सकती। कृष्ण के लौटने के इंतज़ार में हमारा तन और मन दु:खी है। मन में बस एक आशा थी कि कृष्ण आएँगे लेकिन उन्होंने ज्ञान-योग का संदेश भेजकर हमें और भी दु:खी कर दिया। हे उद्धव, अब हम धीरज क्यूँ धरें और कैसे धरें, जब हमारी आशा का एकमात्र सहारा भी डूब गया। 

तीसरे पद का अर्थ 

हमारैं हरि हारिल की लकरी।
मन क्रम बचन नंद-नंदन उर, यह दृढ़ करि पकरी।
जागत सोवत स्वप्न दिवस-निसि, कान्ह-कान्ह जक री।
सुनत जोग लागत है ऐसौ, ज्यौं करुई ककरी।
सु तौ ब्याधि हमकौ लै आए, देखी सुनी न करी।
यह तौ ‘सूर’ तिनहिं लै सौंपौ, जिनके मन चकरी।।

इन पंक्तियों में गोपियाँ कहती हैं कि श्रीकृष्ण उनके लिए हारिल चिड़िया की लकड़ी के जैसे हो गए। श्रीकृष्ण के अलावा कोई और बात उन्हें कड़वी ककड़ी की तरह लगती है। वे उद्धव से कहती हैं कि योग साधना का संदेश चंचल मन वालों को दो; उन्हें इस उपदेश की ज़रूरत नहीं। 

चौथे पद का अर्थ 

हरि हैं राजनीति पढ़ि आए।
समुझी बात कहत मधुकर के, समाचार सब पाए।
इक अति चतुर हुते पहिलैं ही, अब गुरु ग्रंथ पढ़ाए।
बढ़ी बुद्धि जानी जो उनकी, जोग-सँदेस पठाए।
ऊधौ भले लोग आगे के, पर हित डोलत धाए।
अब अपनै मन फेर पाइहैं, चलत जु हुते चुराए।
ते क्यौं अनीति करैं आपुन, जे और अनीति छुड़ाए।
राज धरम तौ यहै ‘सूर’, जो प्रजा न जाहिं सताए।।

गोपियाँ कहती हैं कि कृष्ण तो राजनीतिज्ञ की तरह हो गये हैं; चालक तो पहले ही थे अब और ग्रंथ पढ़ लिए हैं। तभी तो हमारे पास उद्धव से योग का संदेश भेजा है। आप कृष्ण से जाकर कहिए कि मिलना ही नहीं चाहते तो हमारा मन वापस कर दें। कृष्ण तो एक राजा हैं, उन्हें तो हमेशा प्रजा के हित का ख्याल रखना चाहिए, यही राजधर्म है। 

विश्लेषण : सूरदास – पद 

साहित्यिक शैली 

इन पदों की भाषा में गीतात्मकता और लयात्मकता है। 

पदों में ब्रज भाषा का प्रयोग- 

अपरस – अछूता 

माहँ – में 

पाऊँ – पैर 

पारगी – मधु होना 

पदों में अलंकार का प्रयोग- 

अलंकार- काव्य की शोभा बढ़ाने वाले शब्द होते हैं।

अनुप्रास अलंकार– एक ही वर्ण की एक से अधिक बार आवृत्ति होना। 

उदाहरण 

ढ़ी बुद्धि जानी जो उनकी’ 

मुख्य भाव 

इन पदों में श्रीकृष्ण की याद में गोपियाँ किस तरह व्याकुल हैं तथा कृष्ण के बिना उनका क्या हाल है वह बता रही है। पदों में विरह के भाव का प्रदर्शन हो रहा है। गोपियाँ अपने वियोग के भावों को श्रीकृष्ण के लिए प्रकट कर रही हैं। 


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